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“जिन लाहौर नी वेख्या” ने मनुष्यता की ऊँचाई दिखायी

इप्टा इंदौर के कार्यक्रम याद-ए-हबीब ने सबको रुलाया भी और हँसाया भी
विभाजन के दर्द को महसूस कर दर्शकों की आँखें हुईं नम

इंदौर। भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की इंदौर इकाई द्वारा इप्टा से 1950 के दशक से ही जुड़े रहे भारत के आधुनिक नाटक जगत के महान नाटककार हबीब तनवीर को उनके ही द्वारा मंचित और निर्देशित नाटक के अंश और नाटकों में गाये गीतों के माध्यम से 10 जून 2024 को इंदौर के अभिनव कला समाज सभागृह में “याद-ए-हबीब” कार्यक्रम में याद किया। श्रोताओं और दर्शकों की संख्या सभागार की क्षमता पार कर गई थी और नीचे बैठे और खड़े हुए लोगों ने भी अपनी जगह छोड़ना गवारा नहीं किया जब तक कार्यक्रम चलता रहा। प्रस्तुतियाँ देने के लिए जो कलाकार आये थे, वे भी हबीब तनवीर जी के साथ दशकों तक रंगमंच में काम किये थे।
“जिन लाहौर नी वेख्या ओ जन्म्या ही नहीं” की नाट्य प्रस्तुति
देश विभाजन की पीड़ा एक माँ पर किस तरह गुजरी है और कैसे साथ-साथ रहते दो अलग-अलग धर्मों के लोग भी मोहब्बत के धागे से जुड़ जाते हैं और जो लोग मजहब की बुनियाद पर इंसानियत का ही क़त्ल कर देते हैं, उनके दिलों के काले अँधेरे को सजीव किया “जिन लाहौर नी वेख्या ओ जन्म्या ही नहीं” नाटक के संक्षिप्त संस्करण की प्रस्तुति ने।

असगर वज़ाहत के नाटक “जिन लाहौर नहीं वैख्या ओ जन्मया ही नहीं” को कैसे हबीब तनवीर ने तब चुना जब वे श्रीराम सेंटर दिल्ली की रेपर्टरी के लिए एक नये नाटक की खोज में थे। फिर कैसे उस लिखे हुए नाटक को मंच की जरूरतों के मुताबिक ढाला गया, नये क़िरदार जोड़े गए और इस तरह जुड़ा हबीब तनवीर के निर्देशित “आगरा बाज़ार”, “चरणदास चोर”, “मिट्टी की गाड़ी”, “शाजापुर की शांतिबाई” आदि महान नाटकों में एक और नगीना। इस पूरी प्रक्रिया की गवाह रहीं वरिष्ठ अभिनेत्री फ़्लोरा बोस (बेंगलुरू) ने ये पूरी दास्तान बड़े दिलचस्प अंदाज़ में सुनायी। उन्होंने यह भी बताया कि पहले के दो-तीन प्रदर्शनों में उनकी भूमिका अलग क़िरदार की थी और जो माई की भूमिका थी, वो कोई और अभिनेत्री करती थी लेकिन फिर किसी निजी वजह से उसे जाना पड़ा तब से हबीब साहब के इस नाटक की मुख्य पात्र “माई” का क़िरदार उन्होंने 500 से ज़्यादा मंचनों में निभाया और देश, विदेश, गाँवों, शहरों में यह नाटक घूमा। पूरा नाटक क़रीब ढाई घंटे का है लेकिन खास इस मौके के लिए इसका इप्टा इंदौर के कलाकारों के सहयोग से एक सप्ताह में इसका आधे घंटे का संक्षिप्त संस्करण तैययर किया गया और जब इस संक्षिप्त नाटक के पाँच दृश्य खेले गए तो हर दृश्य के बाद होने वाले फेड आउट से फेड इन के दौरान लगातार तालियाँ बजती रहतीं थीं और अँधेरे के बाद जब मंच पर की रोशनी थोड़ी सी उतरकर दर्शकों तक आती थी तो सभी दर्शकों की आँखों में आँसू झिलमिलाते दिखते थे।

इस संक्षिप्तीकरण का काम बहुत मुश्किल था। ऐसे में बाज दफा नाटक की रूह ही मर जाती है लेकिन जया मेहता के सधे हुए सम्पादन, फ़्लोरा की मंझी हुई अदाकारी और इप्टा के कलाकारों की रात-दिन की मेहनत ने इसे बहुत असरदार प्रस्तुति बना दिया। फ़्लोरा जब लाहौर की पंजाबी लहजे वाली उर्दू बोलती हैं तो केवल अभिनय और संवाद के दम पर भी वो दर्शकों को लाहौर दिखा लाने की ताक़त रखती हैं। नाटक के बाद अनेक मिनटों तक दर्शकों की तालियों और प्रतिसाद को देखते हुए यह भी सोचा गया कि इप्टा की इंदौर इकाई “लाहौर” का पूरा संस्करण भी तैयार करेगी।
प्रस्तुति के प्रारंभ में छत्तीसगढ़ की लोक कलाकार संगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत पूनम तिवारी ने देश की तत्कालीन हालत को गीत के माध्यम से व्यक्त किया। उन्होंने नाटक में गाये गए गीत को गाया कि
“ये ज़मीं बँट गई आसमां बट गया, और नतीजे में हिंदोस्तान बँट गया
हमने देखा था जो ख्वाब वह और ही था, अब जो देखा तो पंजाब ही और था।
नाटक की कहानी यह है कि देश विभाजन में भारत से लाहौर पहुँचे एक मिर्ज़ा परिवार को पाकिस्तान के अधिकारियों ने ऐसी हवेली आवंटित की जो एक हिंदू व्यापारी के परिवार की थी। जब मिर्जा परिवार हवेली में पहुँचा तो वहाँ उन्हें एक वृद्ध महिला “रतनलाल की माँ” मिली जो हवेली की मालकिन थी। वो दंगों के दौरान अपने बाहर गए बेटे के लौट आने की आस में महीनों से हवेली में इंतज़ार करती रुकी थी। उसका बेटा कभी लौटा ही नहीं। मिर्ज़ा परिवार चाहता था कि माई हिंदुस्तान चली जाए, लेकिन वृद्ध महिला अपनी हवेली और शहर छोड़ने को तैयार नहीं होती और अपने बेटे का इंतज़ार वहीं रुककर करना चाहती है।
कहानी आगे बढ़ती है। मिर्जा परिवार शुरुआत में मजबूरी में और फिर घर के बुजुर्ग की तरह, हवेली में अकेली रह रही माई की देखभाल करता है। साथ रहने और रोजमर्रा की ज़िंदगी में बच्चों की मौजूदगी से उनके आपसी संबंध आत्मीय और स्नेहपूर्ण हो जाते हैं। लेकिन लाहौर के धार्मिक कट्टरपंथियों को यह मंजूर नहीं था। वे शिकायत लेकर क्षेत्र के मौलवी के पास पहुँचते हैं। मौलाना उन्हें समझाता है कि इस्लाम दूसरे मजहब का सम्मान करना सिखाता है और एक हिन्दू औरत अगर लाहौर में रह रही है तो कौन सी कयामत आ गई है, लेकिन वे समझने को तैयार नहीं होते। आखिरकार माई का निधन हो जाता है, उसकी अंत्येष्टि में शामिल होने के पूर्व मौलवीजी मस्जिद में नमाज पढ़ने जाते हैं, जहां कट्टरपंथियों द्वारा उनकी भी हत्या कर दी जाती है। लाहौर में एक साथ दो जनाजे निकलते हैं एक माई का दूसरा मौलाना का। नाटक के सभी कलाकार फ्लोरा बोस, अथर्व शिन्त्रे, नेहा, आयष, सुबीरा, गुलरेज़ खान, आदित्य, उजान बैनर्जी, विवेक सिकरवार, विकास चौधरी, नितिन ठाकुर, विवेक सिंह का अभिनय भाव प्रवण और सधा हुआ था।
पूनम तिवारी और उनके स्मृतिशेष पति दीपक तिवारी ने भी हबीब तनवीर के नाटकों में बरसों-बरस काम किया था। दीपक ‘चरणदास चोर’ नाटक के हीरो हुआ करते थे और पूनम रानी का क़िरदार निभाती थीं। यह जोड़ी बहुत पसंद की गई। दोनों ने शादी भी कर ली और बच्चे भी हो गए। हबीब साहब के साथ नाटक करते-करते हुए बच्चों ने भी नाटकों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। कोई बच्चा भालू बन जाता कोई बंदर। बाद में वे अपना नाट्य समूह बनाकर राजनन्दगाँव (छत्तीसगढ़) में बस गए थे लेकिन हबीब साहब के रहते वो हमेशा उनके स्नेह पात्र रहे। बहरहाल, 2019 में पूनम ने अपना जवान और होनहार अभिनेता बेटे सूरज को खो दिया। दीपक तिवारी को लकवा मार गया और फिर कम उम्र में ही 2021 में दीपक की भी मृत्यु हो गई। याद-ए-हबीब में दूसरी प्रमुख उपस्थिति थी पूनम तिवारी और उनकी बेटी दिव्या तिवारी की। “जिन लाहौर नी …” नाट्य प्रस्तुति का समापन पूनम तिवारी द्वारा शायर साहिर लुधियानवी के विख्यात गीत के गायन से हुआ “ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है। ख़ून फिर ख़ून है, टपकेगा तो जम जाएगा।” पूनम की आवाज़ और साहिर के अल्फ़ाज़ ने अंत को उरूज़ पर पहुँचा दिया।
नाट्य प्रस्तुति के पश्चात पूनम तिवारी एवं उनकी पुत्री दिव्या तिवारी द्वारा हबीब साहब के नाटकों “आगरा बाजार, चरण दास चोर” आदि अन्य नाटकों में गाये गए गीतों की संगीतमय प्रस्तुति हुई। लोगों का दिल भर ही नहीं रहा था और लोग चाहते थे कि सुनते ही रहें। पूनम ने संगीत की कोई औपचारिक शिक्षा भी नहीं ली है लेकिन उनकी आवाज़ और लोक से सीधे उनके क़दमों में उतार आये बेलौसपन ने उनकी प्रस्तुतियों को इतना गरिमापूर्ण बना दिया कि जिसने सुना, उसने अपने आपको सराहा और जिसने नहीं सुन पाया, उसे जब पता चल तो दुखी हुआ। यही सोचकर पूनम और दिव्या तिवारी और उनके साथी लिमेश एवं अन्य साजिंदों का कार्यक्रम 12 जून 2024 को दोबारा उसी सभागृह में घोषित कर दिया गया जिसे इप्टा के साथ मध्य प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की इंदौर इकाई और स्टेट प्रेस क्लब के सहयोग से किया गया।
इस अवसर पर दर्शकों को संबोधित करते हुए इप्टा के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष राकेश वेदा (लखनऊ) ने कहा कि इप्टा में कला के माध्यम से अपने पुरखों, आदर्श नायकों को याद करने की परंपरा रही है। रंगमंच एक यात्रा है जो अनवरत चलती रहती है। यह भी उल्लेखनीय है कि 4 जून को घोषित हुए लोकसभा नतीजों के बाद मध्य प्रदेश के धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील तबक़े में जो उदासी छायी हुई थी, उसके तुरंत बाद पहले प्रसन्ना का नाट्य शिविर आऊर फिर हबीब साहब की याद में जो कार्यक्रम हुए, और उनमें दर्शकों का जो उत्साह और उपस्थिति रही, उसने यह यक़ीन फिर पुख्ता किया कि आखिरकार मनुष्य जाति-धर्म के बंधन से ऊपर उठेगा और सांप्रदायिक ज़हर फैलाने वाली साजिशों को ज़रूर नाकाम करेगा। कार्यक्रम में पटना से आये इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव तनवीर अख्तर और लखनऊ से आई अभिनेत्री वेदा राकेश भी शामिल हुए। आयोजन के संचालन और संयोजन में इप्टा इंदौर की टीम और स्टेट प्रेस क्लब द्वारा महत्वपूर्ण योगदान दिया गया।

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